०५ एप्रिल २०२२

वाचा :- महत्त्वाचे प्रश्न उत्तरे

' सरदार सरोवर ' हा प्रकल्प कोणत्या नदीवर आहे ?

उत्तर -- नर्मदा
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' आग्रा ' हे शहर कोणत्या नदी काठावर आहे ?

उत्तर -- यमुना
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' शिवाजी सागर ' जलाशय कोणत्या जलाशयास म्हणतात ?

उत्तर -- कोयना
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' संजय गांधी ' राष्ट्रीय उद्यान कोठे आहे ?

उत्तर -- बोरिवली ( मुंबई )
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महाराष्ट्रातील सर्वांत मोठा कागद कारखाना कोणत्या जिल्ह्यात आहे ?

उत्तर -- चंद्रपुर
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महाराष्ट्र राज्याच्या सागरी किना-याची लांबी किती आहे ?

उत्तर -- ७२० कि. मी.
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शिवनेरी किल्ला कोणत्या जिल्ह्यात आहे ?

उत्तर -- पुणे
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' भंडारदरा ' धरण कोणत्या नदीवर आहे ?

उत्तर -- प्रवरा
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पालघर जिल्ह्यातील मत्स्य व्यवसायाचे प्रमुख केंद्र कोणते आहे ?

उत्तर -- सातपाटी
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' बिहू ' हे लोकनृत्य कोणत्या राज्यातील आहे ?

उत्तर -- आसाम
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अनेर धरण कोणत्या जिल्ह्यात आहे ?

उत्तर -- धुळे
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महाराष्ट्रातील द्वितीय क्रमांकाचे उंच शिखर कोणते ?

उत्तर -- साल्हेर.

राष्ट्रासाठी महिलांचे योगदान


🔹सुचेता कृपलानी

इंदिरा गाँधी ने कभी सुचेता कृपलानी के बारे में कहा था, ‘ऐसा साहस और चरित्र, तो स्त्रीत्व को इस कदर ऊँचा उठाता हो, महिलाओं में कम ही देखने को मिलता है।’ स्वतंत्रता आंदोलन के साथ सुचेता कृपलानी का जिक्र आता ही है। सुचेता ने आंदोलन के हर चरण में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और कई बार जेल गईं। सन् 1946 में उन्हें असेंबली का अध्यक्ष चुना गया। सन् 1958 से लेकर 1960 तक वह भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की जनरल सेक्रेटरी रहीं और 1963 में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं।

• राष्ट्रासाठी महिलांचे योगदान

🔹 मीरा बेन

लंदन के एक सैन्य अधिकारी की बेटी मैडलिन स्लेड गाँधी के व्यक्तित्व के जादू में बँधी साम समंदर पार काले लोगों के देश हिंदुस्तान चली आई और फिर यहीं की होकर रह गईं। गाँधी ने उन्हें नाम दिया था - मीरा बेन। मीरा बेन सादी धोती पहनती, सूत कातती, गाँव-गाँव घूमती। वह गोरी नस्ल की अँग्रेज थीं, लेकिन हिंदुस्तान की आजादी के पक्ष में थी। उन्होंने जरूर इस देश की धरती पर जन्म नहीं लिया था, लेकिन वह सही मायनों में हिंदुस्तानी थीं। गाँधी का अपनी इस विदेशी पुत्री पर विशेष अनुराग था

• राष्ट्रासाठी महिलांचे योगदान

🔹कमला नेहरू

कमला जब ब्याहकर इलाहाबाद आईं तो एक सामान्य, कमउम्र नवेली ब्याहता भर थीं। सीधी-सादी हिंदुस्तानी लड़की, लेकिन वक्त पड़ने पर यही कोमल बहू लौह स्त्री साबित हुई, जो धरने-जुलूस मेंअँग्रेजों का सामना करती है, भूख हड़ताल करती है और जेल की पथरीली धरती पर सोती है। नेहरू के साथ-साथ कमला नेहरू और फिर इंदिरा की भी सारी प्रेरणाओं में देश की आजादी ही सर्वोपरि थी। असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर शिरकत की। कमला नेहरू केआखिरी दिन मुश्किलों से भरे थे। अस्पताल में बीमार कमला की जब स्विटजरलैंड में टीबी से मौत हुई, उस समय भी नेहरू जेल में ही थे।

• राष्ट्रासाठी महिलांचे योगदान

🔹मैडम भीकाजी कामा

पारसी यूँ तो हिंदुस्तानी थे, लेकिन गोरी चमड़ी और अँग्रेजी शिक्षा के कारण अँग्रेजों के ज्यादा निकट थे। ऐसे ही एक पारसी परिवार में जन्मी भीकाजी कामा पर अँग्रेजी शिक्षा के बावजूद अँग्रेजियत का कोई असर नहीं था। वह एकपक्की राष्ट्रवादी और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थीं। स्टुटगार्ड जर्मनी में उन्होंने देश की आजादी पर कहा था, ‘हिंदुस्तानी की आजादी का परचम लहरा रहा है। अँग्रेजों, उसे सलाम करो। यह झंडा हिंदुस्तान के लाखों जवानों के रक्त से सींचा गया है। सज्जनों, मैं आपसे अपील करती हूँ कि उठें और भारत की आजादी के प्रतीक इस झंडे को सलाम करें।’ फिरंगी भीकाजी कामा के क्रिया-कलापों से भयभीत थे और उन्होंने उनकी हत्या के प्रयास भी किए। पर देश-प्रेम से उन्नत भाल झुकता है भला। भीकाजी कामा का नाम आज भी उसी गर्व के साथ हमारे दिलों में उन्नत है।

• राष्ट्रासाठी महिलांचे योगदान

🔹 सिस्टर निवेदिता

उनका वास्तविक नाम मारग्रेट नोबल था। उस दौर में बहुत-सीविदेशी महिलाओं को हिंदुस्तान के व्यक्तित्वों और आजादी[image]NDNDकी लड़ाई ने प्रभावित किया था। स्वामी विवेकानंद के जीवन और दर्शन के प्रभाव में जनवरी, 1898 में वह हिंदुस्तान आईं। भारत स्त्री-जीवन की उदात्तता उन्हें आकर्षित करती थी, लेकिन उन्होंने स्त्रियों कीशिक्षा और उनके बौद्धिक उत्थान की जरूरत को महसूस किया और इस
के लिए बहुत बड़े पैमाने पर काम भी किया। प्लेग की महामारी के दौरान उन्होंने पूरी शिद्दत से रोगियों की सेवा की और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भी अग्रणी भूमिका निभाई। भारतीय इतिहास और दर्शन पर उनका बहुत महत्वपूर्ण लेखन है, जो भारतीय उपमहाद्वीप में स्त्रियों की बेहतरी की प्रेरणाओं से संचालित है।

राष्ट्रासाठी महिलांचे योगदान

🔹 कोकिला सरोजिनी नायडू

सिर्फ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ही नहीं, बल्किबहुत अच्छी कवियत्री भी थीं। गोपाल कृष्ण[image]NDNDगोखले से एक ऐतिहासिक मुलाकात ने उनके जीवन की दिशा बदल दी। दक्षिण अफ्रीका से हिंदुस्तान आने के बाद गाँधीजी पर भी शुरू-शुरू में गोखलेका बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था। सरोजिनी नायडू ने खिलाफत आंदोलन की बागडोर सँभाली

• राष्ट्रासाठी महिलांचे योगदान

🔹विजयलक्ष्मी पंडित

एक संपन्न, कुलीन घराने से ताल्लुक रखने वाली और जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित भी आजादी की लड़ाई में शामिल थीं। सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें जेल में बंद किया गया था। वह एक पढ़ी-लिखी और प्रबुद्ध महिला थीं और विदेशों में आयोजित विभिन्न सम्मेलनों में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। भारत के राजनीतिक इतिहास में वह पहली महिला मंत्री थीं। वह संयुक्त राष्ट्र की पहली भारतीय महिला अध्यक्ष थीं। वह स्वतंत्र भारत की पहली महिला राजदूत थीं, जिन्होंने मास्को, लंदन और वॉशिंगटन में भारत का प्रतिनिधित्व किया।

• राष्ट्रासाठी महिलांचे योगदान

🔹अरुणा आसफ अली

हरियाणा के एक रूढि़वादी बंगाली परिवार से आने वाली अरुणा आसफ अली ने परिवार और स्त्रीत्व के तमाम बंधनों[image]NDNDको अस्वीकार करते हुए जंग-ए-आजादी को अपनी कर्मभूमि के रूप में स्वीकार किया। 1930 में नमक सत्याग्रह से उनके राजनीतिक संघर्ष की शुरुआत हुई। अँग्रेज हुकूमत ने उन्हें एक साल के लिए जेल में कैद कर दिया। बाद में गाँधी-इर्विंग समझौतेके बाद जब सत्याग्रह के कैदियों को रिहा किया जा रहा था, तब भी उन्हें रिहा नहीं किया गया।ऐतिहासिक भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 9 अगस्त, 1942 को अरुणा आसफ अली ने गोवालिया टैंक मैदान में राष्ट्रीय झंडा फहराकर आंदोलन की अगुवाई की। वह एक प्रबल राष्ट्रवादी और आंदोलनकर्मी थीं। उन्होंने लंबे समय तक भूमिगत रहकर काम किया। सरकार ने उनकी सारी संपत्ति जब्त कर ली और उन्हें पकड़ने वाले के लिए 5000 रु. का ईनाम भी रखा। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की मासिक पत्रिका ‘इंकलाब’ का भी संपादन किया। 1998 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

आजाद हिंद सेनेची स्थापना

👑 भारताच्या स्वातंत्र्यचळवळीतील एक सर्वाधिक लोकप्रिय नेते सुभाषचंद्र बोस होत. १९३८ व १९३९ साली राष्ट्रीय सभेच्या अध्यक्षपदी त्यांची निवड झाली.

👑 दुसरे महायुध्द सुरू झाल्यानंतर त्यांनी राष्ट्रीय चळवळ प्रखर करण्याचा आणि परकीयांची (म्हणजेच ब्रिटनच्या शत्रूराष्ट्रांची) मदत घेऊन स्वातंत्र्य प्राप्त करण्यात यावे, असा विचार मांडला. 

👑 फॅसिस्ट राष्ट्रांना अन्य ज्येष्ठ नेत्यांचा प्रखर विरोध असल्याने, सुभाषचंद्र बोस यांचे त्यांच्याशी मतभेद झाले. त्याची परिणती म्हणजे नेताजींनी दिलेला राष्ट्रीय काॅंग्रेसचा राजीनामा आणि फॉरर्वड ब्लॉक या पक्षाची केलेली स्थापना. 

👑 ब्रिटिशांविरूध्द उठाव करण्याच्या त्यांच्या प्रचारामुळे सरकारने त्यांना नजरकैदेत ठेवले, नजरकैदेतून शिताफिने निसटून ते प्रथम जर्मनीला आणि नंतर जपानला गेले.

👑 ज्येष्ठ स्वातंत्र्यसेनानी रासबिहारी बोस यांनी १९४२ साली जपानच्या सहकार्याने आझाद हिंद सेने ची स्थापना केली.

👑 जपानमधील रासबिहारी बोस यांनी सिंगापूर, मलाया, ब्रम्हदेश येथील हिंदी लोकांचा हिंद स्वातंत्र्य संघ स्थापन केला. हिंदी सैन्यात राष्ट्रप्रेम निर्माण केले रासबिहारी बोस यांनी आझाद हिंद सेंनेची स्थापना केली

👑 नेताजींनी आझाद हिंद सेनेचे नेतृत्व करावे, अशी रासबिहारी बोस यांनी विनंती केल्याने त्यांनी त्यांनी आझाद हिंद सेनेचे नेतृत्व स्वीकारले.

👑 नेताजींनी १९४३ आझाद हिंद सरकार ची स्थापना केली. आणि अमेरिका व इंग्लडविरूध्द युदध घोषित केले.

👑 आझाद हिंद सेनेने भारताला ब्रिटिशांच्या जोखडातून मुक्त करण्याचा अयशस्वी प्रयत्न केला. १८ ऑगस्ट १९४५ रोजी नेताजींचा अपघाती मृत्यू झाला व या सशस्त्र संघर्षाच्या पर्वाची समाप्ती झाली.

👑 आझाद हिंद सेनेच्या अधिकारी व सैनिकांवर राजद्रोहाच्या आरोपाखाली तुरुंगात डांबन्यात आले.
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जागतिक इतिहास

🔹बॅस्टील
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बॅस्टील पॅरिसच्या पूर्वबाजूस असलेला व ब्रिटिशांच्या हल्ल्यापासून पॅरिसचे रक्षण करण्यासाठी बांधलेला फ्रान्समधील इतिहास प्रसिद्ध किल्ला.
बॅस्टील या शद्बाचे दोन अर्थ आहेत : तटबंदीयुक्त इमारत व शस्त्रागार. याची उभारणी ह्यूजिस ऑब्रिएट याच्या मार्गदर्शनाखाली १३६९-१३७० मध्ये शतवार्षिक युद्धाच्या वेळी झाली.

पाचव्या चार्ल्सच्या राजवाड्याच्या संरक्षणार्थ ती करण्यात आली. या आयताकृती किल्ल्याला २३ मी. उंचीचे आठ बुरूज असून ते सलग भिंतीने जोडलेले होते. किल्ल्याच्या सभोवती रुंद खंदक होता. फ्रान्सचा शासकीय तुरुंग म्हणून याची प्रसिद्धी होती.

तेथे राजकीय व संकीर्ण स्वरुपाचे गुन्हेगार कैदी म्हणून ठेवीत. सोळाव्या शतकापर्यंत त्याचा लष्करी दृष्ट्या उपयोग केला जाई. त्यानंतर १६२० पासून फ्रान्सचा पंतप्रधान आर्मां झां रीशल्य याने त्याचा कारागृह म्हणून प्रथम वापर करण्यास सुरुवात केली. सुमारे ४० कैदी येथे असत. त्यांचा येथे अनन्वित छळ केला जाई.

राजाच्या विरोधकांची न्यायालयीन चौकशी न करता त्यांच्या कारवासाची मुदत राजाच्या मर्जीवर अवलंबून असे. येथे जप्त केलेली पुस्तकेही आणून ठेवीत. या किल्ल्याच्या व्यवस्थापनास फार खर्च येऊ लागला; म्हणून तो पाडण्यात यावा, अशा प्रकारचे विचारही १७८४ मध्ये प्रसृत झाले.

फ्रेंच राज्यक्रांतीच्या काळात बॅस्टील हे अनियंत्रित राज्यसत्तेच्या अन्यायाचे व जुलमाचे प्रतीक मानले गेले. जुलै १७८९ च्या सुरुवातीस १६ व्या लूईने राष्ट्रीय सभा (नॅशनल असेंब्ली) नेस्तनाबूत करण्यासाठी पॅरिसच्या आसपास लष्कराची जमवाजमव सुरू केली, तेव्हा राष्ट्रीय सभेने त्याला लष्कर मागे घेण्यास सांगितले; पण लुईने ह्या कृतीस नकार दिला व त्या वेळचा लोकप्रिय झालेला अर्थमंत्री झाक नेकेर यास बडतर्फ केले (१७८१).

राजाच्या बेमुर्वतपणामुळे चिडून जाऊन कॅमिल देमुलच्या नेतृत्वाखाली जनतेने जोराचा उठाव केला व केला व १४ जुलै १७८९ रोजी तेथील कैदी सोडविण्यासाठी व युद्धसामग्री हस्तगत करण्यासाठी बॅस्तीलच्या किल्ल्यावर हल्ला केला. किल्ल्यावरील प्रमुख अधिकारी व राज्यपाल बेरनार रने झॉरदां लोनो याच्या मदतीस यावेळी फक्त १३० फ्रेंच सैनिक होते.

त्यास पुरेल एवढा अन्नधान्याचा साठा तेथे नव्हता. थोड्याशा प्रतिकारानंतर दुपारच्या सुमारास लोनोने किल्ला क्रांतिकारकांच्या ताब्यात दिला. क्रांतिकारकांनी किल्ल्यात प्रवेश केल्यावर तुरुंग फोडून तेथील कैद्यांस मुक्त केले आणि किल्ल्याच्या मोडतोडीस प्रारंभ केला. त्या वेळी आत फक्त सात कैदी होते. प्रक्षुब्ध जमावाने लोनोचा बळी घेतला.

बॅस्टीलचा पाडाव हा लष्करी दृष्ट्या फारसा महत्त्वाचा नसला, तरी त्याचे राजकीय महत्त्व मोठे आहे. यामुळे क्रांतीकारकांना लुईविरुद्ध महत्त्वाचा विजय मिळाला. लोकांचा लूईबद्दलचा आदर कमी झाला. बॅस्तीलच्या पाडावामुळे पॅरिसच्या जनतेत स्वसामर्थ्याची प्रखर जाणीव झाली.

बॅस्टीलचा किल्ला पुढे संपूर्णपणे पाडण्यात येऊन त्या जागी १७८९ व १८३० मध्ये झालेल्या क्रांत्यांमधील हुतात्म्यांच्या स्मरणार्थ एक ब्राँझचा स्तंभ उभारण्यात आला. पुढे १४ जुलै हा बॅस्तीलदिन म्हणून राष्ट्रीय सुटीचा दिवस जाहीर करण्यात आला (१८८०). तो दिवस मिरवणुका, भाषणे, नृत्य इत्यादींनी मोठ्या प्रमाणावर साजरा करण्यात येतो.

महत्त्वाची माहिती

इ. स.857 ते इ. स.1947 पर्यंत अखंड भारत सात देशांत विभागला गेला. वर्ष
इ.स.1947 मध्ये झालेली भारत पाकिस्तान फाळणी ही मागील
2500 वर्षांतील देशाची 24 वीं फाळणी होती.
इतिहासात हा उल्लेखच नाही
ज्या राजांनी, शक्तींनी मागील 2500 हजार वर्षांत
भारतावर आक्रमण केले त्यांनी अफगानिस्तान, मॅनमार,
श्रीलंका, नेपाळ, तिबेत, भूटान, पाकिस्तान, मालद्वीप
किंवा बांग्लादेशावर आक्रमण केल्याचा उल्लेख
इतिहासातील कुठल्याच ग्रंथात नाही. त्यामुळे हे देश म्हणून
अखंड भारत असावे याला पुष्टी मिळते. पाकिस्तान आणि
बंगलादेशाची निर्मिती कशी झाली याचा इतिहास
सर्वांनाच माहिती आहे. परंतु, भारताचे तुकडे होऊन इतर देश कसे
निर्माण झाले, याची फारशी माहिती कुणाला नाही.
अशी होती अखंड भारताची सीमा
उत्तरेकडे हिमालय आणि दक्षिणेकडे हिंद महासागर या
भारताच्या सीमा होत्या, असा उल्लेख प्राचीन इतिहासात
आहे. परंतु, पूर्व आणि पश्चिमेच्या सीमेची काहीही माहिती
नाही. कैलास मानसरोवरवरून पूर्वेकडे गेले की, आताचा
इंडोनेशिया आणि पश्चिमेकडे गेले की इराण हा आर्यान प्रदेश
हिमालयाच्या अंतिम टोकाला आहे. अॅटलस यांच्या
मतानुसार, जेव्हा आपण पूर्व व पश्चिमेकडून श्रीलंका किंवा
कन्याकुमारीला पाहू तेव्हा लक्षात येईल की, हिंद महासागर
हा इंडोनेशिया व आर्यान (इराण) पर्यंतच आहे. या संगमानंतर
महासागराचे नाव बदलते. या प्रकारे हिमालय, हिंद महासागर,
आर्यान (इराण) आणि इंडोनेशियाच्या मधातील संपूर्ण भू-
भागाला हा आर्यावर्त किंवा भारतवर्ष असे म्हटले जात असे.
आतापर्यंत 24 विभाजन
राइट विंग इतिहासकारांनुसार, वर्ष 1947 मध्ये भारत-पाक
फाळणी झाली. मागील 2500 वर्षांत हे भारताचे 24 वे
विभाजन होते. इंग्रजांच्या उल्लेखानुसार इ.स.1857 ते इ.स.1947 पर्यंत
भारताची ही सातवी फाळणी आहे. इ.स.1857 मध्ये भारताचे
क्षेत्रफळ 83 लाख वर्ग किमी होते. आताचे क्षेत्रफळ 33 लाख
वर्ग किमी आहे. भारताच्या शेजारील राष्ट्रांचे क्षेत्रफळ 50
लाख वर्ग किमी आहे.
काय आहे अखंड भारत
आज भारताच्या चारही बाजूने असलेले देशांत 1800 वर्षांपूर्वी
बोली, संस्कृती, नृत्य, पूजापाठ, पंथ, वेशभूषा, संगीत सर्वच
भारतासाखरे होते. परंतु, परराष्ट्राचा संपर्क आल्याने त्यांची
संस्कृती बदलली.
2500 वर्षांत भारतावर झालेले हल्ले
मागील 2500 वर्षांत भारतावर अनेक अक्रमणे झाली. यामध्ये
यूनानी, यवन, हूण, शक, कुषाण, र्तगाली, फ्रेंच, डच आणि
इंग्रेजांचा समावेश आहे. या सर्वांत इतिसाहात उल्लेख आहे.
परंतु, या काळात अफगानिस्तान, मॅनमार, श्रीलंका, नेपाळ,
तिब्बेट, भूटान, पाकिस्तान, मालद्वीप किंवा बांग्लादेशावर
आक्रमण झाल्याचा उल्लेख नाही.
रशिया आणि इंग्रजांनी बनवला अफगानिस्तान
26 मे 1876 रोजी रशिया आणि ब्रिटिश शासनामध्ये 'गंडामक
संधी' नावाचा करार झाला. त्या आधारे अफगानिस्तान
नावाचा नवा देश स्थापन झाला. पूर्वी हा देश भारताचाच
भाग होता. या करारामुळे तो भारतापासून वेगळा झाला. या
प्रदेशात राहणारे प्राचीन काळात शैव पंथीय होते. नंतर त्यांनी
बुद्ध धम्म स्वीकारला. पुढे ते मुस्लीम झाले. सम्राट शाहजहान,
शेरशाह सुरी आणि महाराजा रणजित सिंह यांच्या
शासनकाळात कंधार (गांधार) चा स्पष्ट उल्लेख आहे.
इ. स.1904 मध्ये दिला स्वतंत्र देशाचा दर्जा
पृथ्वी नारायण शाह यांनी मध्य हिमालयाच्या परिरातील
लहान लहान 46 राज्यांना एकत्र करून नेपाळ नावाचे राज्य
तयार केले होते. इंग्रजांनी वर्ष 1904 मध्ये या डोंगरवस्तीतील
राजांसोबत करार करून नेपाळला स्वतंत्र देशाचा दर्जा प्रदान
केला. या प्रकारे नेपाळचे भारतापासून विभागाजन झाले.
इंग्रजांच्या खेळीमुळे भूटान भारतापासून वेगळे
1906 मध्ये इंग्राजांनी भारताच्या ज्या भागाला
भारतापासून तोडले. तोच आज भूटान. इसवी सन सहाव्या
शतकापासून या देशाने बौद्ध धर्माचा अंगीकार केला.
कसा तयार झाला तिबेट
वर्ष 1914 मध्ये तिबेटला केवळ एक पक्ष मानत भारतातील
ब्रिटिश सरकार आणि चीनमध्ये एक करार झाला. त्या अंतर्गत
तिबेटला एक बफर राज्य म्हणून मान्यता देताना हिमालयला
विभाजित करण्यासाठी मॅकमोहन रेषा निर्माण करण्याचा
निर्णय झाला. यामध्ये हिमालयाची वाटणी करण्याचाही
डाव रचण्यात आला. पुढे चीनच्या साम्रज्यवादी भूमिकेमुळे
हा भाग चीनच्या ताब्यात गेला.
इंग्रजांनी दिली मान्यता
आपल्या नौसेनेला बळ देण्यासाठी इंग्रजांनी श्रीलंका आणि
नंतर मॅनमारला वेगळा देश म्हणून मान्यता दिली. ऐतिहासिक
आणि सांस्कृतिकदृष्ट्या हे दोन्ही देश भारताचा भाग होते.
भाषिक अस्मितेमुळे बंगलादेश
धर्माच्या आधारे 1947 मध्ये पाकिस्तानची निर्मिती झाली.
मात्र, पुढे भाषिक अस्मितेमुळे बंगाल भाषिकांनी 16 डिसेंबर
1971 ला पाकिस्तानपासून तुटून बांगलादेशाच्या
नावाखाली वेगळा देश निर्माण केला..

राणी लक्ष्मीबाई

महाराणी लक्ष्मीबाई गंगाधरराव नेवाळकर
टोपणनाव:मनू
जन्म:नोव्हेंबर १९, इ.स. १८३५
काशी, भारत
मृत्यू:जून १७, इ.स. १८५८
झाशी, मध्य प्रदेश
चळवळ:१८५७ चे स्वातंत्र्ययुद्ध
प्रमुख स्मारके:ग्वाल्हेर
धर्म:हिंदू
वडील:मोरोपंत तांबे
आई:भागीरथीबाई तांबे
पती:गंगाधरराव नेवाळकर
अपत्ये:दामोदर (दत्तकपुत्र)

लक्ष्मीबाई गंगाधरराव नेवाळकर, म्हणजेच झाशीची राणी लक्ष्मीबाई, (नोव्हेंबर १९, इ.स.१८३५ - जून १७, इ.स. १८५८) या एकोणिसाव्या शतकातील झाशी राज्याच्या राणी होत्या. हिंदुस्थानात इ.स. १८५७च्या ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी विरूद्ध झालेल्या स्वातंत्र्य उठावातील या एक अग्रणी सेनानी होत्या. यांच्या शौर्याने यांना ‘क्रांतिकारकांची स्फूर्तिदेवता’ म्हणून जनमानसात अढळ स्थान प्राप्त झाले.

बालपण

लक्ष्मीबाईंचे मूळ नाव मणिकर्णिका तांबे होते. यांचे वडील मोरोपंत तांबे हे पुण्याच्या पेशव्यांच्या आश्रयाला होते. तांबे कुटुंब मूळचे सातारा जिल्ह्यातील होते. लक्ष्मीबाईंचा जन्म भागीरथी बाई यांच्या पोटी उत्तर प्रदेशातील काशी येथे झाला होता.

व्यक्तिमत्त्व

धोरणी, चतुर, युद्धशास्त्रनिपुण, शूर आणि थोर कर्तृत्व व नेतृत्व असणार्‍या राणी लक्ष्मीबाई जन्मतः कोणत्याही राजघराण्यातील नसल्या तरी राजघराण्याशी संबंधित व्यक्तींमधे वावरलेल्या, वाढलेल्या होत्या. अश्वपरीक्षेचे सर्व मापदंड माहीत असणार्‍या लक्ष्मीबाई घोडेस्वारी करण्यातही वाकबगार होत्या. त्या काळी पूर्ण हिंदुस्थानात श्रीमंत नानासाहेब पेशवे, जयाजी शिंदे व लक्ष्मीबाई या तिघांशिवाय कोणीही अचूक अश्वपरीक्षा करणारा नव्हता. अष्टपैलू व्यक्तिमत्त्व असणार्‍या राणी लक्ष्मीबाईंनी युद्धशास्त्रातील प्रत्येक विद्येत प्रावीण्य मिळविले. बाजीरावांच्या पदरी बाळंभट देवधर नावाचे उत्तम कसरतपटू आणि कुस्तीगीर होते. त्यांनीच मल्लविद्येत पारंगत होण्यासाठी मल्लखांब नावाचा कसरतीचा वेगळा प्रकार शोधून काढला. मनाची एकाग्रता, विलक्षण चपळता, शरीराचा तोल सांभाळण्याचे पूर्ण कौशल्य, काटकपणा आणि चतुरस्र भान वृद्धिंगत करणार्‍या मल्लखांब विद्येतही राणी लक्ष्मीबाई तरबेज झाल्या.

वैवाहिक जीवन

इ.स. १८४२ मध्ये त्यांचा विवाह झाशी संस्थानाचे राजे गंगाधरराव नेवाळकर यांच्याशी झाला. तेंव्हा त्यांचे नाव बदलून लक्ष्मीबाई असे ठेवण्यात आले. लग्नानंतर झाशीच्या प्रजाजनांत राणीबद्दल विशेष प्रेम निर्माण झाले.

दरबाराचे कामकाज राणीने पाहणे गंगाधररावांस पसंत नसल्याने मिळालेल्या वेळेचा उपयोग लक्ष्मीबाईंनी स्वत्त्व जपण्यासाठी केला. त्यांनी आपला रोजचा व्यायाम, कसरत, घोडेस्वारी, तलवारबाजी नियमित सुरू ठेवली.

गंगाधरराव नेवाळकर व लक्ष्मीबाई यांना मुलगा झाला परंतु तीन महिन्याचा असताना तो मृत्यू पावला. मुलाच्या रूपाने वारस मिळाल्याच्या आनंदात असणारे गंगाधररावही या गोष्टीने दुःखी झाले. त्यांनी वासुदेवराव नेवाळकर यांच्या मुलाला दत्तक घेऊन त्याचे दामोदर असे नाव ठेवले. इ.स. १८५३ मध्ये गंगाधररावांचे निधन झाले.

झाशी संस्थान खालसा

पूर्वीपासून झाशीच्या ब्रिटिशांशी असणार्‍या मैत्रीपूर्ण संबंधांवरून राणी लक्ष्मीबाईंना ईस्ट इंडिया कंपनीद्वारे ब्रिटिश सरकार झाशी संस्थान खालसा करणार नाही असे वाटत होते. त्यासाठी लक्ष्मीबाई स्वतः ईस्ट इंडिया कंपनीशी पत्रव्यवहार करत होत्या. या पत्रव्यवहारातून त्यांनी कंपनी सरकारचा अन्याय, बेकायदेशीरपणा आणि खोडसाळपणा उघड केला. एका पत्रात त्यांनी झाशी संस्थान खालसा केले, तर पूर्ण हिंदुस्थानातील लोकांना हळहळ वाटेल. परिणामी हिंदुस्थानातील लोकांना ब्रिटिशांबद्दल भरवसा, विश्वास वाटेल का?, अशी शंका व्यक्त करून कंपनीला एक प्रकारचे आव्हान दिले. कंपनी सरकारच्या बेजबाबदार अनैतिक कृत्यांनी व कंपनीच्या अधिकाराला आव्हान देणाचे धारिष्ट्य करणाऱ्या राणी लक्ष्मीबाई या देशातील पहिल्या काही व्यक्तींमधील एक होत्या.

परंतु हिंदुस्थानातील संस्थाने खालसा करण्याचा निर्णय गव्हर्नर जनरल डलहौसीने घेतलेलाच असल्याने झाशी संस्थानही खालसा करण्यात आले. १३ मार्च, इ.स. १८५४रोजी झाशीच्या जनतेला उद्देशून जाहीरनामा काढण्यात आला. त्यानुसार दत्तक विधान नामंजूर करून झांशी संस्थान ब्रिटिश सरकारांत विलीन करण्यात आले. त्या वेळीच स्वाभिमानी राणीने माझी झाशी देणार नाही असे स्फूर्तिदायक उद्गार काढले.

झाशी खालसा झाल्यावर लक्ष्मीबाईंना किल्ला सोडून शहरातील राजवाड्यात राहायला यावे लागले. राणी लक्ष्मीबाईंना पदच्युत झाल्याचा अपमान सहन करीत काही काळ शांत बसावे लागले होते.

इ.स. १८५७चे स्वातंत्र्ययुद्ध

इ.स. १८५७ चा उठाव हा पूर्ण हिंदुस्थानात झाला. त्याप्रमाणे ५ जून, १८५७ ला झाशीतही शिपायांचा उद्रेक झाला. केवळ ३५ शिपायांनी इंग्रजांना पळवून लावले. या परिस्थितीत इंग्रजांच्या परवानगीची वाट न पाहता राणी लक्ष्मीबाई किल्ल्यावर राहण्यास गेल्या. पुढे २२ जुलै, इ.स. १८५७ ला ब्रिटिशांनी राणींना झाशीची अधिकार

सूत्रे हाती घेण्यास सांगितले. राणी पुन्हा राज्यकर्त्या झाल्या होत्या, परंतु अतिशय बिकट परिस्थितीत त्यांच्या हाती राज्यकारभार आला होता. मनुष्यबळ नव्हते आणि खजिनाही रिकामाच होता. प्रजेच्या मनात असुरक्षितता, भविष्याबद्दल भीती होती. परंतु तरीही लक्ष्मीबाईंनी खंबीरपणाने परिस्थिती हाताळली. जुन्या विश्र्वासातील लोकांना परत बोलावून त्यांना काही अधिकाराची पदे दिली. दिवाण लक्ष्मणरावांना प्रधानमंत्री, तर प्रत्यक्ष वडिलांना - मारोपंत तांब्यांना - खजिनदार केले. लक्ष्मणरावांचा भाऊ, मुलगा तसेच मुन्सफ, भोलानाथ, आणि नामांकित गोलंदाज खुदाबक्ष यांना फौजेचे व शस्त्रास्त्रांच्या जोडणीचे काम दिले. बंडखोर ठाकूरांना धोरणीपणाने आपल्या बाजूस वळविले. राज्याच्या सल्लागार मंडळात सामील करून घेतले. ब्रिटिशांनी निकामी केलेल्या २२ तोफा पुन्हा सुरू करून तोफगोळ्यांची निर्मितीही सुरू केली. इंग्रजांविरुद्ध बंड करणार्‍या विद्रोही शिपायांना आपल्या सैन्यात सामील करून घेतले. परकीयांविरुद्ध लढण्याची तयारी करीत असतानाच राणींनी प्रजेचा स्वाभिमान, निष्ठा वाढवण्याचा व आनंद जपण्याचा प्रयत्न केला. दानशूर, श्रद्धाळू व दयाळू लक्ष्मीबाईंनी थंडीत कुडकुडणार्‍या हजार-दीड हजार गरीबांना, साधू-संन्याशांना उबदार कपड्यांचे वाटप केले. स्वतःबरोबर प्रजेच्या श्रद्धा जपणार्‍या राणीने गोवध बंदी सुरू केली. रंगपंचमीसारखा सण साजरा करून स्त्रियांसाठी हळदी-कुंकवासारखे धार्मिक कार्यक्रम त्यांनी किल्ल्यावर केले.

अशा प्रकारे प्रशासन, सैन्य व कल्याणकारी कामे यांची चोख व्यवस्था लावून स्वराज्य असल्याचा विश्र्वास राणी लक्ष्मीबाईंनी जनतेत निर्माण केला. प्रजेला मुक्त मनाने आपल्या आवडीच्या गोष्टी करण्यासाठी, त्यांच्या कलेची जोपासना करण्यासाठी त्यांनी प्रयत्न केले. त्यांनी झाशीमध्ये मराठी नाटकांचे प्रयोग घडवून आणले. मराठी भाषिकांसाठी रासक्रीडा, चित्रलेखा, बाणासूर इ. नाटके योजली. स्वतःही नाटकांचा आनंद घेतला. एक स्थिर, सुरक्षित, समृद्ध व सुसंस्कृत राज्य घडवण्याचा प्रयत्न राणी लक्ष्मीबाईंनी केला. यामुळे राणी आणि झाशीतील प्रजा यांच्यातील नाते दृढ झाले.

दरम्यान २१ मार्च, इ.स. १८५८ ला सकाळीच सर ह्यू रोज आपल्या फौजेसह झाशीजवळ आला. त्याने राणींस नि:शस्त्र भेटीस यावे किंवा युद्धास तयार राहावे असे कळविले. ब्रिटिशांनी केलेल्या विश्र्वासघातामुळे, अन्यायामुळे ‘भारतात विदेशी शासन नकोच’ अशा ठाम मताच्या राणींनी भेटीस जाण्याचे नाकारले. त्याच वेळी तात्या टोपे यांच्याशी संधान बांधून एका बाजूने इंग्रजांवर हल्ला करण्यास सुचविले.

उत्तम प्रतीचा सेनानी आणि कर्तबगार राजकारणी असणार्‍या ह्यू रोजने झाशीच्या किल्ल्यावर मारा करण्यासाठी आजुबाजूच्या टेकड्यांवर कब्जा मिळविला. त्या टेकड्यांवर तोफा चढवल्या. २-३ दिवस झाशीची बाजू अभेद्य होती. घनगर्ज भवानीशंकर, कडक बिजली या तोफा आपल्या नावाप्रमाणे कार्यरत होत्या. घौसखान याने तर तोफेमधून असा मारा केला, की त्यामुळे दोन शिवमंदिरे वाचली. या गोष्टीसाठी आजही झाशीतील लोक त्याला धन्यवाद देतात. युद्धाच्या ९ व्या दिवशी इंग्रजांनी पश्चिमेकडील तोफ बंद पाडून त्या बाजूच्या तटाला खिंडारे पाडली. ही खिंडारे बुजवण्यासाठी रातोरात काम केले गेले. त्या वेळी चुना, दगड, विटा यांची ने-आण करण्याचे काम स्त्रियांनी केले होते हे विशेष.

शेवटी ब्रिटिशांना फितुरांनीच साथ दिली. झांशीमधील शंकर किल्ल्यावरील मोठ्या विहीरीतून संपूर्ण झांशीला पाणी पुरवठा व्हायचा, ती विहीर आणि जिथे दारुगोळा तयार व्हायचा, तो कारखाना, ही दोन ठिकाणे इंग्रजांनी उद्ध्वस्त केली. अशा स्थितीत राणींची आशा पेशव्यांकडून येणार्‍या मदतीवर होती. त्याप्रमाणे ३१ मार्चला तात्या टोपेंचे सैन्य आले. परंतु इंग्रजांपुढे त्यांचा टिकाव लागला नाही.

राणी लक्ष्मीबाईंनी सर्व फौजेला धीर देताना स्वतःच्या बळावरच लढण्याचे आवाहन केले. एवढेच नाही तर ‘रणांगणात तुम्हाला मृत्यू आला, तर तुमच्या विधवांच्या निर्वाहाची व्यवस्था मी करेन’ असे आश्र्वासन दिले. राणीचे डावे-उजवे हात असणारे खुदाबक्ष आणि घौसखान इंग्रजांच्या गोळीबारात मृत्युमुखी पडल्यावर मात्र बिकट परिस्थिती निर्माण झाली. ब्रिटिश सैन्य शिड्या लावून शहरात उतरले. शांत, सुंदर शहराची होणारी वाताहत पाहून राणी संतापल्या आणि त्यांनी प्रत्यक्ष रणांगणात उतरण्याचा निर्णय अंमलात आणला. संतापलेल्या राणीची तलवार अशी तळपत होती, की समोर येणारा गोरा शिपाई गारदच होत होता. त्यांचे धैर्य, शौर्य, आवेश पाहून ह्यू रोजही थबकला. तरीही एका अनुभवी सरदाराने पुढचा धोका लक्षात घेऊन लक्ष्मीबाईंना परत किल्ल्यावर नेले. सर्व फौजी अधिकार्‍यांशी लक्ष्मीबाईंनी चर्चा केली आणि निर्णयानुसार रातोरात त्यांनी झाशी सोडले. सतत ११ दिवस राणींनी ब्रिटिशांना झुलवत ठेवले. लढाईचा साक्षीदार ह्यूज रोजनेही म्हटले की ‘राणी लक्ष्मीबाई सर्वोत्कृष्ट सैनिक आणि सर्वाधिक हिंमतवान

व्यक्ती होती.’

या पराभवानंतर राणी पेशव्यांबरोबर ग्वाल्हेरला गेली. तेथेही स्वस्थ न बसता लक्ष्मीबाईंनी आपल्या सैन्याची कवायत नियमित चालू ठेवली. सैन्यांमध्ये फिरून, सैनिकांची चौकशी करीत, इंग्रजांना रोखण्यासाठी कशा प्रकारे मोर्चे बांधणी करावी याविषयी त्यांनी चर्चा केली. याच वेळी १७ जून इ.स. १८५८ रोजी सकाळीच ब्रिटिश अधिकारी स्मिथ सैन्यासह ग्वाल्हेरच्या अगदी जवळ येऊन पोहोचला. त्याने त्वरित हल्ला चढवला. लक्ष्मीबाईंनी रणांगणात धाव घेतली. लक्ष्मीबाई तलवारीचे सपसप वार करीत समोर येणार्‍या ब्रिटिश सैन्याला कापून काढत होत्या. आवेगाने, विजेसारख्या तळपणार्‍या राणींकडे पाहून त्यांचे सैन्यही त्वेषाने लढले. इंग्रज अधिकारी स्मिथचे सैन्य मागे हटणारच होते, त्याच वेळी नव्या दमाची एक फौज बाजूच्या टेकडीवरून चालून आली. दोन्हीकडून आलेल्या सैन्यासमोर राणींचा निभाव लागला नाही. परिस्थिती ओळखून त्या काही स्वारांनिशी बाहेर पडल्या. थोडे पुढे जाताच एका ओढ्यापाशी त्यांचा घोडा अडला. नेहमीचा घोडा शेवटच्या लढाईत त्यांच्याबरोबर नव्हता. काही केल्या घोडा ओढा ओलांडत नव्हता. तिथे इंग्रजांशी लढत असताना राणी लक्ष्मीबाई रक्‍तबंबाळ होऊन घोड्यावरून खाली कोसळल्या. त्यांचा डाव्या कुशीतही तलवार घुसली, परंतु पुरूषी वेशात असलेल्या राणी लक्ष्मीबाई यांना इंग्रज ओळखू शकले नाही. ते पुढे निघून गेले. घायाळ झालेल्या राणी लक्ष्मीबाई यांना त्यांच्या सेवकाने एका मठात आणले. परंतु त्यांची उपचार करण्याची इच्छा नव्हती. आपला देह क्रूर इंग्रजांच्या हाती लागू नये अशी त्यांची इच्छा होती. म्हणून त्या सेवकाने त्यांना मुखाग्नी दिला. झाशीची राणी लक्ष्मीबाई यांनी वयाच्या तिसाव्या वर्षी मरण स्वीकारले आणि अशाप्रकारे एका शूर राणीला रणांगणात वीरमरण आले.





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